बंगाल विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी ने एक बात को साबित कर दिया कि वे भी बाजीगर से कम नहीं है। रविवार सामने आए 295 सीटों के परिणाम में भाजपा को शिकस्त का सामना करना पडा। केन्द्र सरकार के तमाम बड़े नेताओं ने पश्चिम बंगाल में प्रचार में पूरी ताकत भी झोंक दी थी लेकिन इसके बावजूद भाजपा को हार का सामना करना पड़ा। यही नहीं भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह ने भी बंगाल में कई चुनावी सभाओं को संबोधित किया। लेकिन परिणाम उनके पक्ष में नहीं आ सके। आपको बता दें कि वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद ममता बनर्जी ने कुछ नई योजनाएं शुरू की गई थी। जिसका असर 2021 के विधानसभा चुनाव में देखने को मिला। 2016 के विधानसभा चुनाव में भारी जीत के तीन साल बाद तृणमूल कांग्रेस को 2019 के लोकसभा चुनाव में तगड़ा झटका लगा था। यहां भाजपा ने 18 सीटें जीती थीं। भाजपा की इस चुनौती के बाद तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी ने कई महत्वपूर्ण कल्याणकारी योजनाओं की शुरुआत की। जिनमें दुआरे सरकार और दीदी के बोलो योजना ने इस चुनाव में काफी प्रभाव डाला। इस योजना के तहत शिकायतों को लोग फोन के माध्यम से सीधा मुख्यमंत्री तक पहुंचा सकते हैं। यही नहीं एक दशक में, तृणमूल ने रूपाश्री, कन्याश्री, और साबूज साथी जैसी कई योजनाएं शुरू कर आमजनता के बीच अपनी पकड़ को और अधिक मजबूत कर लिया। इन योजनाओं से गरीबों को लाभ मिला। इससे भाजपा परेशान हुई और इन योजनाओं में भ्रष्टाचार के मुद्दे उठाए, लेकिन मतदाताओं पर इसका कोई असर नहीं पड़ा।
ममता बनाम मोदी की लड़ाई का मिला फायदा
बंगाल विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे आगे बढा। लड़ाई के केंद्र में ममता बनाम मोदी और अमित शाह नजर आने लगे थे। इस बात का फायदा भी टीएमसी को मिला। प्रधानमंत्री की ओर से दीदी, ओ दीदी कहने का असर बंगाल में मतदाताओं पर देखने को मिला।
धु्रवीकरण की राजनीति
बंगाल चुनाव में धु्रवीकरण की राजनीति का खासा असर देखने को मिला। इसको लेकर भाजपा ने ममता बनर्जी पर धु्रवीकरण के प्रयास का आरोप भी लगाया लेकिन भाजपा का ये दाव भी काम नहीं आ सका। इसका असर ये सामने आया कि बीजेपी के विरोध में 30 प्रतिशत मुस्लिम वोट का असर दिखा और उस अनुपात में बीजेपी के साथ अन्य मतदाता नहीं जुड़ पाए।
भाजपा के पास नहीं था मजबूत संगठन
बंगाल में तृणमूल कांग्रेस का संगठन बेहद मजबूत स्थिति में है। भाजपा की हार के पीछे ये महत्वपूर्ण कारण है कि उनकी संगठनात्मक स्थिति तृणमूल कांग्रेस की अपेक्षा बेहद ही कमजोर थी। टीएमसी की जीत में उनके संगठन का बहुत बड़ा योगदान रहा है। भाजपा के पास भी वही नेता थे जो पहले टीएमसी में रह चुके थे।
